सहारनपुर। अगर फूले और अंबेडकर की लड़ाई को दलितों ने धर्म में फितना/फसाद कह कर धितकार दिया होता तो आज क्या आलम होता? उन्होंने अपने साथ हो रहे अन्याय और साज़िशों को जाना और समझा, फिर एकजुट होकर सामाजिक न्याय की बात की। तब जाकर आज उन्हें अधिकार मिला है जो प्रैक्टिकली अभी भी पूरी तरह से नहीं मिल सका है।यह बात राष्ट्रीय आती पिछड़ा मोर्चे के अध्यक्ष गुलज़ार सलमानी ने कही दूसरी तरफ, पसमांदा मुसलमान (अति पिछड़े मुसलमान)हैं जो अशराफियात(मनुवादी मुस्लिम खान पठान शेख सैय्यद उस्मानी फारुकी इत्यादि) साज़िशों के तहत प्रतिनिधित्व से वंचित हैं।
अगर एक आम मुसलमान से पूछा जाये तो वो कहेगा कि इस्लाम में ज़ात पात नहीं है, और इस्लाम की बुनियादी तालीम भी यही है। लेकिन हमें इस्लाम और मुस्लिम समाज का भेद समझना होगा। मुस्लिम समाज में ज़ात पात की जटिल व्यवस्था है जिसकी जड़ों को चंद अशराफ आलिमो ने शरीयत का झूठा हवाला देकर मज़बूत किया है। जो किताबें शरीयत के नाम पर बड़े ही अदब और यक़ीन के साथ पसमांदा मुसलमान भी पढ़ता है उनमें ज़ात पात और अशराफियात के ऊँचे दर्जे को सही ठहराया गया है। जब फूले और आंबेडकर की तरह हमारे समाज से सामाजिक न्याय और बराबरी की आवाज़ उठती है तो बिना गौर-ओ-फिक्र किये अशराफ के साथ साथ खुद पसमांदा तबका भी विरोध कह कर न्याय और बराबरी के आंदोलन को धर्म में फितना करार देता है।
विडंबना यही है कि ज़्यादातर पसमांदा मुसलमान तो अभी अपने साथ हुए और हो रहे अन्याय और भेदभाव को मानने से ही इनकार कर रहे हैं क्योंकि ये जहॉं रहते होंगे वहॉं सैयदों की आबादी कम होगी, लेकिन ऐसी कई दलीलें और दस्तावेज़ों से साबित होता है कि अशराफ बाहुल्य क्षेत्रों में पसमांदा मुसलमानों के साथ मस्जिदों से लेकर कब्रिस्तानों तक में भेदभाव होता है, बाकी सामाजिक और राजनैतिक हैसियत और प्रतिनिधित्व तो शून्य के बराबर है ही। अफसोस कि हम पसमांदा मुसलमानों की नज़र में आंबेडकर और फूले की दलितों के अधिकारों के लिये सामाजिक न्याय और बराबरी की लड़ाई तो आदर्श है लेकिन जब पसमांदा मुसलमानों के अधिकारों के लिये आंदोलन की बात होती है तो हममें से ज़्यादातर को अपनी ही लड़ाई धर्म में फितना लगती है